|| Gangubai Kathiawadi film Review ||

Gangubai Kathiawadi फिल्म की कहानी में काफी पोटेंशियल है. यह फिल्म गंगा के गंगूबाई बनने का सफर है। 'गंगूबाई चांद थी और चांद ही रहेगी।' सही भी है, 16 की उम्र में जिस लड़की को शरीर बेचने के लिए इशारे से ग्राहक बुलाने पड़े, इसके बावजूद वो उस अंधेरी गली की औरतों की जिंदगी में रोशनी लाने की कोशिश करे तो वो लड़की चांद ही कही जाएगी और इसी गंगूबाई की जिंदगी पर बनी है, संजय लीला भंसाली की फिल्म 'गंगूबाई काठियावाड़ी'।

जिस लड़की को उसका अपना ही प्रेमी जिसपर वो अंधा विश्वास करती है, वही उसके भरोसे और सपने को हजार रुपये में कोठे पर बेच देता है, जिसके बाद गंगा हालात से मजबूर होकर घुटने टेक देती है या फिर हालात को ही बदलती है, इसपर ही फिल्म का ताना-बाना पिरोया गया है। 

फिल्म 'गंगूबाई' (आलिया भट्ट) के सेक्स वर्कर से सोशल वर्कर बनने तक के सफर को दिखाती है। इसमें मुंबई में हिरोइन बनने का सपना लेकर प्रेमी संग घर से भागी गंगा का कोठे की चांद गंगू बनना, एक क्रूर ग्राहक के जुल्म के खिलाफ इंसाफ के लिए डॉन रहीम लाला (अजय देवगन) से मदद मांगना, और फिर उससे भाई-बहन का रिश्ता जोड़ना, कमाठीपुरा की प्रेसिडेंट रजिया बाई (विजय राज) को हराकर उस कुर्सी पर काबिज होना, दर्जी अफसान (शांतनु माहेश्वरी) से इश्क का अफसाना लिखना, पत्रकार फैजी (जिम सर्भ) की मदद से बतौर प्रेजिडेंट इलाके की औरतों के हक के लिए समाज से लड़ना, ये सब इस फिल्म में शामिल है। 
    
भंसाली ने फिल्म के लिए पत्रकार हुसैन जैदी और जेन बॉर्जेस की किताब माफिया क्वींस ऑफ मुंबई में दर्ज गंगूबाई की कहानी को आधार बनाया था। फिर, भंसाली तो पर्दे पर भव्य सिनेमाई दुनिया रचने के लिए जाने ही जाते हैं। फिल्म गंगूबाई काठियावाड़ी का ट्रेलर रिलीज होते ही गंगूबाई के अडॉप्टेड परिवारवालों ने आपत्ति जताई थी कि उनकी मां को वेश्या के रूप में दिखाया गया है जबकि उनकी मां सोशल वर्कर थी। रिलीज से पहले ही फिल्म को लेकर यह विवाद अदालत तक पहुंचा गया था लेकिन जैसे तैसे इसका निपटारा हुआ और फिल्म रिलीज़ हुई। 

फिल्म की स्क्रिप्ट उस स्तर की नहीं है जिस कद के भंसाली खुद हैं और आलिया की अदाकारी है, कुछ सीन अच्छे भी हैं, जैसे आलिया कार में पैर पर पैर चढ़ाए बैठतीं हैं। सफेद साड़ी में उनकी एंट्री भी कमाल लगती है। आलिया कहीं कहीं पर रूतबे वाली और दबंग भी नज़र आती हैं, गंगा का तैयार होकर सूनी आंखों से दरवाजे के पास आकर ग्राहक को बुलाना, रहीम लाला का कार के बोनट पर एक विलेन को मारना और ऐसे कई सीन होगें जिन्होनें दर्शकों को प्रभावित किया होगा।

फिल्म में उसूलों का पक्का रहीम अपने ही आदमी को बेरहमी से मार उसे सबक सिखाता है। यहीं से रहीम और गंगूबाई की अनोखी बॉन्डिंग शुरू हो जाती है। रहीम के रूप में भाई का सपोर्ट मिलने के बाद गंगूबाई की हिम्मत बढ़ जाती है। 

आगे किस तरह गंगूबाई कमाठीपुरा में रहने वाली 4 हजार औरतों के हक में लड़ती है। इस बीच कमाठीपुरा की प्रेसिडेंट के लिए रजिया से छिड़ी जंग, प्रधानमंत्री नेहरू से मुलाकात, अफसान के प्यार में पड़ने की जर्नी गंगूबाई कैसे तय करती है, ये सब इस फिल्म में देखने को मिला। 
वहीं भंसाली इस फिल्म में भी अपने पुराने अंदाज में नजर आए..भव्य सेट, डार्क स्क्रीन से भंसाली थोड़े अछूते भीव दिखे, 1945 से 1970 के घूमती इस कहानी में कई लूप होल्स हैं। डायलॉग के बीच आलिया का प्लीज कहना हजम नहीं होता है। भंसाली ने गंगूबाई को निखारने के लिए फिल्म में काफी मेहनत की थी। आलिया भट्ट को फिल्म के बीच में रखकर सारी चीज़ें उनके इर्द-गिर्द घूमती नज़र आती हैं। 

काठियावाड़ी' बनाने में भंसाली ने कोई कसर नहीं छोड़ी, कमाठीपुरा के भव्य सेट, करीने से कोरियोग्राफ्ड भीड़, उस दौर को जवां करते गाने, कड़क सफेद साड़ी में अकड़कर चलती गंगूबाई को और आकर्षक बनाते हैं।  इन सबके बावजूद फिल्म 'गंगूबाई का फर्स्ट हाफ फीका पड़ जाता है, रफ्तार धीमी हो जाती है। वहीं सीन देखे-देखे से लगतें हैं। म्यूजिक और डांस के मामले में भी फिल्म में भंसाली का सिग्नेचर अंदाज देखने को मिलता है। लेकिन इसमें कुछ अलग व नयापन नहीं था,  जिंदादिल गंगा का इंट्रोडक्शन देने के लिए भंसाली ने फिर वही नाच-गाने का सहारा लिया। जैसा वो 'हम दिल दे चुके सनम' के जमाने से करते आ रहे हैं। शॉट भी वही है कि सीक्वेंस में खड़े लोगों के बीच गरबा करती हिरोइन!

फिल्म गंगूबाई की शुरुआत में गंगू का दर्द भी उस तरह महसूस नहीं हो पाता जिस तरह होना चाहिये। ये फिल्म अपने रंग में इंटरवल के बाद आती है। जब गंगू अपने जैसों के हक के लिए खड़ी होती है, उसका दर्द, उसका गुस्सा साफ देखने को मिलता है, हेडमास्टर से उसकी बहस से लेकर सैकड़ों की भीड़ में भाषण हर सीन को दमदार कर देता है। इसके अलावा, एक कोठेवाली कैसे अपनी जवान होती बेटी को ग्राहकों की नजर से बचाने के लिए उसे अफीम चटाकर सुला देती है, कैसे समाज इन बच्चियों को अपने बीच बिठाने लायक नहीं समझता, ये सब सीन बहुत कुछ सोचने को मजबूर करते हैं। 

बात करें, गंगू को पर्दे पर जीने वाली आलिया भट्ट की तो असल मायने में यहां अदाकारी का चांद वही हैं। अपनी दुबली-पतली काया के बावजूद आलिया ने अपने एक्सप्रेशन, डील-डौल, बॉडी लैंग्वेज से माफिया क्वीन गंगूबाई के निडर एटिट्यूट को बखूबी उभारा है और आलोचकों को दिखा दिया है कि इस किरदार के लिए उनसे बेहतर चुनाव शायद ही कोई होता। अपनी-अपनी भूमिकाओं में अजय देवगन, विजय राज, सीमा पाहवा, शांतनु माहेश्वरी, जिम सर्भ जैसे कलाकारों ने भी फिल्म को मजबूती दी है।

फिल्म का एक और मजबूत पक्ष इसके डायलॉग हैं। प्रकाश कपाड़िया और उत्कर्षिणी वशिष्ठ की जोड़ी ने कई जानदार डायलॉग रचे हैं। सुब्रत चक्रवर्ती, अमित रे के प्रॉडक्शन डिजाइन और सुदीप चटर्जी की सिनेमटोग्राफी का फिल्म को खूबसूरत बनाने में अहम योगदान रहा है। बतौर एडिटर भंसाली फिल्म की लंबाई थोड़ी कम कर सकते थे। वहीं, उनके कंपोज किए फिल्म के गाने अपने समय और कहानी के अनुरूप जरूर हैं, पर थिएटर से बाहर आने के बाद 'ढोलिड़ा' के अलावा बाकी गाने याद नहीं रहते। 

ओवरऑल फिल्म एंटरटेनिंग थी। कुछ डायलॉग्स व सीन्स ने आपको इमोशनल जरूर किया होगा लेकिन फिल्म के इंगेजिंग होने में थोड़ी कसर रह गई।

लेखक:- रिया तोमर
जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन


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